Chapter 8
Episode 8
Chapter
पिज़्ज़ा आने से पहले एक वेटर ने स्नेहा को एक चिट लाकर दी। स्नेहा ने कन्फ्यूज होते हुए वो चिट खोल कर देखा तो उसमें लिखा था…
"आज रात 12:00 बजे अपने घर की छत पर मिलो"
स्नेहा थोड़ी सी परेशान हो गई थी। उस चिट को देखते हुए सोच रही थी…
"ऐसा कौन हो सकता है... जो मुझे मेरे ही घर की छत पर रात को 12:00 बजे मिलने बुला रहा है। उसने यहां पर चिट क्यों भिजवाई।"
स्नेहा अपने में ही खोई हुई थी तभी उनका आर्डर आ गया।
पीहू स्नेहा को हिलाते हुए बोलने लगी, "बूईऽऽऽ बूईऽऽऽ हमारा पिज़्ज़ा आ गया।"
स्नेहा ने हडबडाते हुए कहा, "क्या हुआ बिट्टू... कुछ चाहिए…?"
इस पर पीहू ने अपने सर पर अपना हाथ मारते हुए कहा, "बूई आप इतनी थक गई हो कि यहां बैठे बैठे ही सो गई। पता है पिज़्ज़ा ठंडा हो गया और आप सो रही हो।"
स्नेहा ने कहा, "हां बिट्टू थोड़ा सा थक गई थी। कोई बात नहीं... पहले हम पिज़्ज़ा खाते हैं... उसके बाद राइड पर जाएंगे। फिर हम रात को खाना बाहर ही खाएंगे। फिर घर चलेंगे ठीक है।"
पीहू बहुत खुश हो गई और खुशी-खुशी पिज़्ज़ा खाने लगे लगी।
पूरा दिन घूमने के बाद पीहू और स्नेहा 8:00 बजे घर पहुंचे। उस समय सब लोग खाना खा रहे थे।
प्रिती ने पिहू और स्नेहा से खाने के लिए पूछा, "सही टाइम पर आ गए। आ जाओ खाना ठंडा हो रहा है।"
तो पीहू ने चहकते हुए कहा, "नहीं मम्मा हम तो खाना खा कर आए हैं। आपको पता है हमने क्या क्या खाया…? हमने पिज़्ज़ा, पास्ता, चोको-लावा केक, फ्रेंच फ्राइज़ और बर्गर भी खाया।"
फिर कुछ सोचते हुए स्नेहा से पूछा, "बूईईई और वो लास्ट में क्या खाया था…???"
इतने क्यूट एक्सप्रेशंस देखकर स्नेहा के चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान आ गई स्नेहा ने पीहू के सर को सहलाते हुए कहा, "बिट्टू हमने बुढ़िया के बाल खाए थे।"
"ईईई…यूऽऽऽऽऽ बुढ़िया के बाल कौन खाता है…?? वो तो कितने कलरफुल थे और मीठे भी वो बुढ़िया के बाल नहीं हो सकते बस।"
तब प्रीति ने हंसते हुए कहा, "पीहू बेटा... उन्हें बुढिया के बाल ही कहते हैं। "
पीयू ने मुंह बनाया और चुपचाप कमरे में चली गई। उसके जाने के बाद प्रीति और स्नेहा दोनों जोर से हंस पड़ी।
स्नेहा भी अपने कमरे में चली गई। बहुत थक गई थी इसलिए उसने सोचा, "थोड़ी देर आराम कर लेती हूं।"
स्नेहा चेंज करके अपने बेड पर लेट गई। पर उसे नींद नहीं आ रही थी। वह बार-बार उस चिट के बारे में ही सोच रही थी। थोड़ी देर सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई।
उसने अचानक कुछ डरावना सपना देखा और हडबडाते हुए उठ गई। घड़ी में देखा तो 12:00 बजने में केवल 8 मिनट ही बाकी बचे थे। जल्दी से बेड से उठते हुए बड़बड़ाने लगी, "अच्छा हुआ जो उस डरावने सपने के कारण नींद खुल गई। वरना जान ही नहीं पाती कि वह चिट भेजने वाला है कौन??"
यह बड़बड़ाते हुए स्नेहा छत की तरफ दबे पांव जाने लगी। उसे डर था कि कोई उसे इस समय छत पर जाते हुए ना देख ले। अगर कोई देख लेता है तो उसके आजकल के व्यवहार के कारण उसे छत से धक्का देकर सबके सामने यह सिद्ध कर देंगे कि डरावनी औरत के कारण स्नेहा ने खुद छत से छलांग लगा दी। स्नेहा छत पर पहुंची तो उसने देखा छत के दरवाजे पर ताला लगा देखा।
स्नेहा ने सोचा, "यहां तो कभी भी ताला नहीं होता आज क्यों है…?"
स्नेहा जैसे ही उस ताले के लिए चाबी जाने लगी वैसे ही एक हल्की सी कट् की आवाज आई। स्नेहा ने पलट कर देखा तो वह ताला खुला हुआ दिखाई दिया।
स्नेहा थोड़ा परेशान हो गई थी। फिर भी उसने सोचा कि जाकर देखें तो सही ऐसा कौन है जिसने बैठे-बैठे मेरी परेशानी हल कर दी?
स्नेहा दरवाजा खोल कर छत पर चली गई। स्नेहा ने पूरी छत पर देख लिया उसे कोई दिखाई नहीं दिया। स्नेहा ने सोचा, "जब आ ही गई हूं तो थोड़ी देर ताजी हवा में बैठकर थोड़ी देर इंतजार कर लेती हूं। अगर कोई नहीं आएगा तो वापस चले जाएंगे। स्नेहा पौंड के पास लगे झूले पर बैठ गई और झूलते हुए उसका इंतजार करने लगी, जिसने चिट भेजी थी।
बैठे-बैठे थोड़ी देर हो गई… स्नेहा ने सोचा, "शायद किसी ने मजाक किया होगा।"
स्नेहा वापस अपने कमरे में जाने लगी। स्नेहा वापस छत के दरवाजे पर पहुंचे तो वही डरावनी औरत दरवाजे पर खड़ी थी। स्नेहा एक बार को तो बहुत ज्यादा डर गई थी।
वह डरावनी औरत बोली, "मेरा तुम्हें डराने का कोई मकसद नहीं है। मैं तो बस तुम्हारी मदद लेना चाहती हूं।"
स्नेहा पहले तो बहुत ज्यादा डरी हुई थी पर उस औरत की बात सुनकर परेशान हो गई।
उस औरत ने दोबारा बोलना शुरू किया, "मेरा नाम रत्नमंजरी है। यह जो पायल तुमने पहनी है... वो पायल मेरी ही थी। मैंने अपने लिए बनवाई थी जो बाद में मैंने अपनी बेटी को दी और उसने अपनी बेटी को। ऐसे ही चलते-चलते यह पायल आज तुम्हारे पैर में हैं।"
डरावनी औरत के बोलना बंद करते ही स्नेहा ने अपने पैर को देखा स्नेहा के पैर में पहनी पायल अभी भी चमक रही थी।
स्नेहा कभी अपने पैरों को देख रही थी तो कभी उस औरत को…!! बहुत ही ज्यादा असमंजस में थी, स्नेहा…!
उस औरत ने फिर से बोलना शुरू किया, "स्नेहा तुम मेरी ही वंशज हो। जब इस पायल की जोड़ी की दूसरी पायल उस तांत्रिक के पास पहुंची। तभी उस तांत्रिक को यह पता चल गया था यह पायल मेरी है।"
स्नेहा ने डरते हुए रत्नमंजरी से पूछा, "यह पायल आपकी है। इतने समय जैसा आप बोल रही हैं कि यह पायल आपने अपनी बेटी को दी... उन्होंने अपनी बेटी को और उन्होंने अपनी बेटी को। तो उस हिसाब से तो आपकी उम्र बहुत ज्यादा होगी। और आप अभी तक ऐसे ही घूम रही हैं आपका दोबारा जन्म नहीं हुआ?"
रत्नमंजरी ने कहा, "मेरी मृत्यु कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हुई थी। मेरे परिवार को मेरी मृत्यु के बारे में कुछ पता नहीं चला था। तो उन्होंने विधिवत अंतिम संस्कार, पिंडदान जैसी कोई भी मृत्यु पश्चात की जाने वाली, कोई भी मेरी आत्मा की शांति के लिए पूजा नहीं करवाई थी। इसीलिए मेरी आत्मा अतृप्त घूम रही है। जब वो पायल उस तांत्रिक आत्मानंद के हाथों में पहुंची तभी उसे आभास हो गया था की इस पायल की असली स्वामिनी यानी मैं एक अतृप्त आत्मा हूं।"
अब स्नेहा को रत्नमंजरी के बारे में जानने की उत्सुकता हो रही थी। वह रत्नमंजरी के बारे सब कुछ जानना चाहती थी।
स्नेहा ने रत्नमंजरी से पूछा, "तो फिर आपकी मृत्यु हुई कैसे थी? आपके घर वालों को कैसे पता नहीं चला?"
तब रत्नमंजरी ने बोलना शुरू किया, "यह आज से लगभग 300 वर्ष पुरानी बात है। उस समय हमारा परिवार कुशवाहा वंश बहुत ही प्रसिद्ध था अपने शौर्य और पराक्रम के लिए।
राजस्थान के एक छोटे से शहर भवानीपुर में हमारा राज था। वह अंग्रेजों का समय था... पूरे भारत पर अंग्रेजों की सत्ता थी। उस समय हमारे परिवार में केवल एक कन्या का जन्म हुआ था। रत्नमंजरी…!!! वह मैं थी... मुझे पूरे परिवार में सबसे ज्यादा लाड और प्यार से पाला था। सभी राजपूतों वाले गुण घुड़सवारी, तीरंदाजी, युद्ध कौशल, नृत्य,संगीत हर एक कला में निपुण थी मैं…!!
मेरे विवाह योग्य होने पर मेरा विवाह पास ही
सम्राट अरिजीत सिंह के साथ करवा दिया गया। मेरे ससुराल में सभी बहुत अच्छे थे और मेरा बहुत ध्यान रखते थे। शीघ्र ही मैं गर्भवती हो गई थी। उस समय मैं एक बेटी की मां बनना चाहती थी। परंतु राजकुल में प्रथम बालक लड़का ही होना चाहिए... ऐसी गलत धारणाएं भी थी।
उस समय मैं बहुत प्रसन्न थी। मैंने उस समय अपने लिए बहुत ही सुंदर पायलों की जोड़ी बनवाई थी। जिसे मैं धरोहर के रूप में अपनी बेटी को देना चाहती थी। मुझे पुत्री की प्राप्ति भी हुई थी पर राज परिवार की उस गलत धारणा के कारण जन्म लेते ही मेरी बेटी की हत्या कर दी गई। मुझे यह बताया गया कि मैंने एक मरी हुई बेटी को जन्म दिया था।
मुझे इस बात का बहुत ही ज्यादा सदमा लगा था। मेरा व्यवहार पागलों जैसा हो गया था। ना किसी से बोलना-चालना और ना ही अपने कक्ष से बाहर जाना। शीघ्र ही मैंने अपने पति के दूसरे विवाह की बातें दबी छुपी आवाज में होते सुनी।
कला वह मेरी प्रिय सखी भी थी और विवाह में मेरे साथ ही मेरे ससुराल आई भी आई थी। रजवाड़ों की परंपरा थी की पुत्री के साथ में दासियों को भी भेजा जाता था। इसी कारण कला को भी मेरे साथ भेजा गया था पर वह दासी से ज्यादा मेरी एक प्रिय सखी थी।
कला ने मुझे आकर बताया, "रत्ना अरिजीत सिंह जी के दूसरे विवाह की बातें होने लगी हैं। अगर तू ऐसे ही शोक मगन रही तो... एक दिन अपनी पुत्री के साथ-साथ अपने प्रेम से भी हाथ धो बैठेगी।"
मेरे पति मुझे बहुत ही प्रेम करते थे उन्होंने दूसरे विवाह के लिए मना कर दिया। परंतु सभी यह बोलकर उन्हें बाध्य कर रहे थे कि रत्नमंजरी अब पागल हो गई है... वह इस वंश को वारिस नहीं दे सकती।
मेरे पति इस बात से बहुत आहत हुए। उस रात वो हमारे कमरे में आए और फूट-फूट कर रोने लगे। मेरी अवस्था बहुत खराब थी फिर भी अपने सामने अपने प्रेम को रोता हुआ कैसे देख सकती थी।
मेरे पति ने मुझसे कहा, "मंजरी मैं ज्यादा दिन सबको रोक नहीं पाऊंगा। तुम समझने की कोशिश करो... मैं तुम्हारे अलावा किसी और से विवाह करने के बारे में सोच भी नहीं सकता हूं।"
मुझे इस बात से बहुत दुख हुआ कि मैं अपने दुख में यह भी भूल गई हूं... कि संतान अकेले मैंने ही नहीं अरिजीत ने भी खोई थी। मुझे अपने प्रेम के लिए अपने दुख से निकलना ही होगा। मैंने शीघ्र ही अपने पुराने प्रेम भरे दिनों को वापस लाने की सोच ली थी।
उस पायल को अभी भी अपने ह्रदय से लगा कर रखा था क्योंकि वह मेरी पुत्री के लिए मेरी प्रेम धरोहर थी। जब भी मुझे अपनी पुत्री की कमी महसूस होती थी। मैं उस पायल को पहन कर उसे अपने आसपास ही महसूस करने लगी थी। थोड़े ही समय के बाद मैंने दो पुत्रों को जन्म दिया। पर मेरे मन में अभी भी एक पुत्री की कामना थी। जब मैं तीसरी बार गर्भवती हुई तब मैंने यज्ञ, हवन, पूजन-पाठ सभी कुछ किया था... एक पुत्री के लिए। भगवान ने मेरी पूजा का फल मुझे पुत्री के रूप में दिया।
वह धीरे धीरे बड़ी हो रही थी और हम सब उसकी प्रेम और बालपन से भरी बातें, उसकी नटखट शैतानियों से प्रसन्न हो रहे थे। उसके पिता की तो जान ही उसने बसती थी। बड़े ही प्यार से उसका नाम अनंता रखा था। दोनों भाई उसे ऐसे संभालते थे जैसे पलकें नेत्रों को संभालती हैं। सब कुछ बहुत ही अच्छा चल रहा था।
एक दिन मैंने हमारे महल के एक कमरे से कुछ गुप्त मंत्रणा जैसी फुसफुसाहट सुनी। महल के ही कुछ लोग हमारे विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे।
उन्होंने कुछ तांत्रिक अनुष्ठान महल में गुप्त रूप से आयोजित किया था। उसके विषय में ही वह लोग उस दिन बात कर रहे थे।
एक आदमी ने कहा, "हमारी अंग्रेज सरकार से बात हो गई है। वह यह बोल रहे हैं कि अगर अरिजीत और उसके पुत्रों को मार्ग से हटा दिया जाए... तो इस राज्य के नए राजा के रूप में हमारे पुत्र का राजतिलक वह स्वयं करवाएंगे।"
एक स्त्री स्वर गूंजा जिस ने कहा, "स्वामी अगर रत्नमंजरी जीवित रही तो यह भी हमारे लिए संकट की ही बात होगी। "
मैं यह सब सुनकर एक पल के लिए डर गई थी पर यह सोच कर की क्षत्राणियां किसी भी ऐसी परिस्थिति में ऐसे डर कर हार नहीं मान सकती।
उस स्त्री ने फिर से कहा, "आने वाली अमावस्या को महल में एक बड़ा अनुष्ठान आयोजित होने वाला है। उस अनुष्ठान का लाभ उठाकर अरिजीत सिंह और उसकी परिवार का अंत कर देंगे।"
रत्नमंजरी ने यह सब सुना तो वह दबे पांव वापस अपने कक्ष में आ गई। रात भर वह यही सोचकर सो नहीं पाई की अपने परिवार की रक्षा कैसे करूं। मैंने अपने भाइयों को गुप्त रूप से पत्र भेजकर गुप्त रूप से आने के लिए न्योता दिया।
अमावस्या के 2 दिन पहले मेरे भाई मेरे ससुराल अपने छद्म देश में भेष में पहुंचे थे। अमावस्या की रात को ही मैंने अपने दोनों बेटे और अपनी प्रिय अनंता को गले लगाया और यह पायल अनंता को देते हुए कहा, "पुत्री यह तेरी मां की प्रेम धरोहर है तेरे लिए। तू इस धरोहर को अपनी आने वाली पीढ़ी को पहुंचा देना। और सदैव यह याद रखना कि तेरी मां संसार में सबसे अधिक प्रेम तुझसे ही करती है।"
और अपने बेटों को कहा, "तुम आज से अनंता का पालन पोषण अपनी बहन नहीं अपनी पुत्री समझ कर करना। वापस किसी भी परिस्थिति में यहां लौटकर मत आना और जब तक समर्थ ना हो जाओ तब तक किसी को भी यह मत बताना कि तुम सम्राट अरिजीत सिंह जी की संतान हो।"
ऐसा कहकर अपने बच्चों को फिर से गले लगाया और अपने भाइयों के साथ गुप्त मार्ग से अपने मायके भेज दिया। किसी को भी इस बात की जानकारी ना हो इसलिए मैंने स्वयं महल में अनुष्ठान के एक दिन पहले आग लगा दी और यह सिद्ध कर दिया कि मेरे तीनों बच्चे उस आग की भेंट चढ़ गए। मुझे ऐसा करने में बहुत दुख हुआ पर यह झूठ मेरे बच्चों के जीवन से बड़ा नहीं था।
ऐसा करने पर उन लोगों को मुझ पर संदेह हो गया था। उन्होंने अरिजीत की मेरी आंखों के सामने निर्मम हत्या कर दी। यह जानने के लिए कि सच में उस आग में मेरे बच्चे जलकर मरे कि नहीं।