Chapter 16
Episode 16
Chapter
सारी साधनाऐं पूर्ण होने पर अच्युतानंद जी ने स्नेहा से कहा, "स्नेहा अब तुम्हारी सारी मुख्य साधनाएं जो तुम्हें आत्मानंद से सामना करने के लिए चाहिए थी। वह मैंने तुम्हे सिखा दी हैं। अब समय है उन साधनाओं के प्रयोग का और यह देखने का कि तुम्हारी साधनाऐं कितनी सफल हुई हैं?"
अच्युतानंद ने कहा, "स्नेहा इन सभी साधनाओं के बाद अब तुम्हें परीक्षा के रूप में मृत शव भक्षण करना होगा। इसकी सफलता पर ही यह सुनिश्चित होगा कि तुम अपने बदले के लिए तैयार हो या नहीं?"
स्नेहा ने पूछा, "गुरुदेव यह किस तरह की परीक्षा होगी… और इसमें मुझे क्या करना होगा…??"
अच्युतानंद ने कहा, "स्नेहा जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि इसमें तुम्हें मृत शव को खाना होगा... और वह भी बिना घृणा किए।"
स्नेहा एक पल के लिए चौक गई थी पर फिर भी संयत होकर अच्युतानंद जी से हाथ जोड़कर कहने लगी, "गुरुदेव... अगर आप यही कहते हैं... तो ऐसा अवश्य ही होगा। आप केवल यह बताइए कि यह परीक्षा मुझे कब देनी होगी??"
अच्युतानंद ने कहा, "स्नेहा यह परीक्षा तुम्हें कल ही देनी होगी।"
स्नेहा ने हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा, "जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव... अगर आप चाहते हैं कि यह परीक्षा कल हो, तो कल ही यह परीक्षा होगी। इसके अलावा आपकी कोई और आज्ञा।"
अच्युतानंद ने कहा, "नहीं... स्नेहा बस यही है और यह आज्ञा नहीं यह परीक्षा है, जो केवल तुम्हारी नहीं मेरी भी है। इसी परीक्षा की सफलता पर यह निर्भर करता है कि मैं एक योग्य गुरु बन पाया हूं कि नहीं?"
स्नेहा ने कहा, "नहीं-नहीं गुरुदेव…! आप सदैव से एक योग्य शिक्षक की तरह मुझे मार्गदर्शन देते आए हैं। और जीवन पर्यंत मुझे इसी मार्गदर्शन की आवश्यकता रहेगी। आप एक सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं।" ऐसा कहकर स्नेहा ने अच्युतानंद को प्रणाम किया और मां के मंदिर में चली गई।
मंदिर में जाकर स्नेहा ने मां से कहा, "मां मुझे नहीं लगता कि मैं ऐसा कुछ कर पाऊंगी, पर फिर भी यह मेरे गुरु का आदेश है और मेरी परीक्षा भी। इस में सफल होने पर ही मैं भी उन दुष्टों का नाश कर पाऊंगी। जैसे आप सदैव दुष्टों का सर्वनाश करती हो। वैसे ही मुझे भी अपने परिवार के हत्यारों का सर्वनाश करना है, मां... मुझ पर दया करना कि मैं कल की परीक्षा में सफल हो पाऊं।"
ऐसा कहकर स्नेहा वापस अपनी कुटिया में आकर लेट गई। लेटे-लेटे ही सारी रात निकल गई। सुबह उठकर स्नेहा ने स्नान, ध्यान और पूजन किया। उसने मां के मंदिर में जाकर अपने लिए प्रार्थना भी की और फिर अच्युतानंद के पास चली गई। उसने अच्युतानंद जी को नमस्कार करके पूछा "गुरुदेव... कल आपने मेरी परीक्षा के बारे में बताया था। तो गुरुदेव आज आप यह बताइए कि उसके लिए मुझे शव कहां से प्राप्त होगा?"
अच्युतानंद जी ने कहा, "शव की व्यवस्था तुम्हें स्वयं करनी होगी और इस विषय में तो तुम्हे स्वयं सोचना होगा कि शव कहां से आएगा, कैसे आएगा और तुम कैसे अपनी परीक्षा पूरी करोगी?"
स्नेहा ने अच्युतानंद जी को नमस्कार किया और कहा, "जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव... मैं शीघ्र अति शीघ्र शव की व्यवस्था करके इस परीक्षा को अवश्य ही पूर्ण करूंगी।" ऐसा कहकर स्नेहा शव की व्यवस्था के लिए चली गई। सब जगह ढूंढने के बाद भी शव की व्यवस्था नहीं हुई तो स्नेहा थक कर उसी जगह आकर बैठ गई। जहां पहली बार उसे अच्युतानंद जी का स्वर सुनाई दिया था।
स्नेहा वही दुखी होकर बैठी थी कि थोड़ी देर बाद वहां एक शव को जलाने के लिए कुछ लोग आए थे। उन्हें पता नहीं किस बात की जल्दी थी कि बिना ठीक से अंतिम संस्कार किए ही वह लोग जल्दी में चले गए। उन्होंने केवल शव को मुखाग्नि ही दी थी। मुखाग्नि के बाद सभी शीघ्रता से चिता को ऐसे ही छोड़ कर चले गए।
स्नेहा कुछ देर से ऐसे ही बैठकर उनके क्रियाकलाप देख रही थी। जब उसने देखा कि वह लोग बिना ठीक से चिता के जले ही चिता को ऐसे ही छोड़कर चले गए तो स्नेहा ने काफी सोच विचार करने के बाद यह सोचा, "उन लोगों को तो इस शव की कोई चिंता नहीं है, पर शायद यह मेरे काम आ सकता है।"
ऐसा सोच कर स्नेहा ने जलती चिता से लकड़ियां उठा-उठा कर फेंकना शुरू कर दिया। इससे स्नेहा के हाथ भी जल रहे थे पर चिंता उसे केवल शव के जलने की थी। अगर पूरा शव जल गया तो… ये विचार ही स्नेहा को विचलित करने के लिए पर्याप्त था। स्नेहा ने लकड़ियां हटाने की गति और भी बढ़ा दी। वह शव जल तो गया था पर अभी इतना भी नहीं जला था कि स्नेहा के किसी काम ना आ सके। अभी केवल उसकी चमड़ी ही जली थी। स्नेहा ने उस जलते हुए शव को उठाकर नदी की तरफ दौड़ लगा दी, क्योंकि परीक्षा आज ही थी और शव की अति आवश्यकता भी थी। जल्दी से उस शव को ले जाकर नदी में डाल दिया।
इस समय वह शायद सोच भी नहीं सकती थी अपनी शक्तियों के प्रयोग के बारे में। जब स्नेहा ने उस शव को नदी से बाहर निकाला तो वह बहुत ही कुरूप और डरावना दिखाई पड़ रहा था। पूरे शरीर से खाल तो जल ही चुकी थी। कहीं-कहीं से मांस भी जल गया था। पूरा शव रक्त से नहाया हुआ एक मांस के लोथडे जैसा दिखाई दे रहा था। अगर कोई कमजोर दिल वाला व्यक्ति उसे देख ले, तो शायद डर के कारण बेहोश हो जाए।
स्नेहा ने उस शव को उठाया, उस समय लगभग रात के 8:00 बज गए थे। स्नेहा को वह साधना 11:00 बजे से शुरू कर करनी थी। अभी भी स्नेहा के पास काफी समय था, अपने साधनास्थल पर पहुंचने के लिए। स्नेहा ने सावधानी से उस शव को उठाया ताकि शव को कोई भी हानि न पहुंचे।
स्नेहा शव को उठाकर अपनी साधना स्थली पहुंच गई। अच्युतानंद जी उसका वही इंतजार कर रहे थे। शव को देखकर अच्युतानंद जी ने स्नेहा से पूछा, "क्या तुम इसे जलती हुई चिता से उठा कर लाई हो…?"
तब स्नेहा ने श्मशान में घटित सारी घटनाओं के बारे में उन्हें बताया और कहा, "गुरुदेव जब इस शव के परिजनों को ही इसकी चिंता नहीं थी और मुझे परीक्षा को सफलतापूर्वक पूरी करने के लिए इसकी अति आवश्यकता थी। तब मैंने यह निश्चय किया कि यही अब मेरी परीक्षा का साधन बनेगा।"
अच्युतानंद जी ने स्नेहा को परीक्षा में सफल होने का आशीर्वाद दिया और कहा, "मां की असीम कृपा से तुम इस परीक्षा को शीघ्र ही उत्तीर्ण कर पाओ।" ऐसा कहकर अच्युतानंद जी वहां से चले गए।
स्नेहा ने शव का बंधन किया और स्वयं नहा कर शुद्ध होने नदी की तरफ चली गई। शीघ्र ही स्नेहा ने स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहन उस शव के निकट आ गई।
स्नेहा ने शव के चारों तरफ सुरक्षा के लिए एक सुरक्षा चक्र का निर्माण किया। विभिन्न दिशाओं में क्षेत्रपाल, दिगपाल, भैरव और विभिन्न देवताओं का आवाह्न और स्थापना की और यथोचित भोग देकर उनकी अर्चना की। कुछ ही समय बाद मंत्रोच्चार शुरू हो गया। धीरे-धीरे मंत्रोच्चार की आवृतियां बढ़ती ही जा रही थी और साथ में बढ़ती जा रही थी उस शमशान की भयावहता।
स्नेहा ने रक्त चंदन उठाकर उस शव के ह्रदय स्थल पर एक पंच कोणीय यंत्र का निर्माण किया। मंत्रोच्चार करते हुए अक्षत, पुष्प समर्पित किए। फिर एक बड़े से चाकू का पूजन किया, उसे भी अक्षत, पुष्प, गंध और भोग समर्पित किए। फिर वह चाकू उठाकर स्नेहा ने अपने माथे से लगाया। फिर रक्तबीज विनाशिनी माँ महाकाली से अपनी परीक्षा सफ़लतापूर्वक पूरी करने के लिए सहायता मांगी। माँ कालिका का ध्यान करते हुए उस शव को गले से चीरते हुए चाकू को नाभि तक ले गई।
उसके बाद स्नेहा ने अपने हाथों से उस चीरे को चौड़ा किया। जिससे शव की पसलियां और अन्य भीतरी अंग दिखने लगे थे। उसका ह्रदय दिखाई देते ही स्नेहा की आंखों में चमक आ गई। उस समय स्नेहा संसार की सर्वोच्च भयावह और क्रूर स्त्री लग रही थी। उसने पसलियों को एक ही झटके से तोड़ दिया और उस देह से उसके ह्रदय को बाहर निकाल लिया। शव का ह्रदय स्नेहा की हथेली में बहुत ही डरावना और घृणित दिखाई दे रहा था। स्नेहा के हाथों से खून टपक रहा था पर उसके चेहरे पर बिल्कुल भी दया और घृणा के भाव नहीं दिखाई दे रहे थे। उसके सामने ही यज्ञ वेदी बनी हुई थी, जिसमें अग्नि जल रही थी। उसके पास ही एक खप्पर रखा हुआ था, उसमें भी अग्नि प्रज्ज्वलित थी। स्नेहा ने उस खप्पर वाली अग्नि में ह्रदय को रख दिया था।
उस ह्रदय से रक्त की बूंदे टपक रही थी और खप्पर में रखने के बाद रक्त की बूंदे ऐसे नृत्य कर रही थी, जैसे किसी प्रेम धुन पर प्रेमिका, सब कुछ भूल कर प्रेम मगन हो नृत्य करती हैं। उस समय वो रक्त की बूंदे किसी भी साधारण मनुष्य के ह्रदय को समस्त जीवन के लिए भयग्रस्त कर सकती थी।
उस जगह से मांस के जलने की भयंकर दुर्गंध उठ रही थी। कुछ ही पलों में स्नेहा ने उस हृदय को आग से बाहर निकाल लिया। स्नेहा ने मां को वह समर्पित करते हुए कहा, "है ऽऽऽऽ माँ ऽऽऽऽ शमशानेश्वरी ऽऽऽऽ महाकाली ऽऽऽऽ…!!! मैं यह हृदय आप को समर्पित करती हूं... और आपसे प्रार्थना करती हूं कि मेरे गुरुद्वारा मुझे दी गई परीक्षा मृत देह भक्षण में सफलता प्राप्त कर पाऊं। "
ऐसा कहकर स्नेहा ने उस ह्रदय को अपने मुंह में रख लिया। मुंह में रखते समय उस ह्रदय से रक्त टपक रहा था, जो स्नेहा के हाथों से होते हुए कोहनी तक पहुंच कर जमीन पर गिर रहा था। जैसे ही स्नेहा ने उसे मुंह में रखा रक्त की बूंदे... उसके मुंह से टपकते हुए गले तक पहुंच रही थी। स्नेहा की आंखें उस समय रक्तवर्णी थी... उसे देख कर ऐसा लग रहा था कि साक्षात् श्मशानेश्वरी कंकाली माँ महाकाली स्वयं उस शव के भक्षण के लिए वहां आई हो। स्नेहा ने उस ह्रदय का भक्षण किया।
उसी समय अच्युतानंद जी वहां आ गए। उन्होंने स्नेहा से कहा, "स्नेहा तुम इस परीक्षा में सफल रही हो... अब तुम आत्मानंद से अपने परिवार का प्रतिशोध लेने के लिए किसी भी तरह से तैयार हो। अब तुम्हें स्वयं यह निर्णय करना है कि तुम्हें किसको, कैसे और कब मारना है?" बस स्नेहा जब भी आत्मानंद के लिए तुम कुछ सोचो... तब यह ध्यान रखना की अकेले कुछ भी करने की मत सोचना। आत्मानंद से सामना करने के लिए हम दोनों साथ ही जाएंगे।"
स्नेहा ने कहा, "अवश्य गुरुदेव... पर मैं पहले जाकर उसके शमशान को देखना चाहती हूं।"
तब अच्युतानंद ने कहा, "उसके लिए तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें केवल अपनी साधना का प्रयोग करना है। तुम मणिकर्णिका योगिनी साधना का प्रयोग करो। मां तुम्हें इस बारे में सब कुछ विस्तार से बता देंगी। जो तुम स्वयं जाकर भी नहीं पता लगा पाओगी। वह जानकारी भी तुम्हें मां से प्राप्त हो जाएगी।"
स्नेहा ने कहा, "जो आज्ञा गुरुदेव…!! मैं शीघ्र ही इस बारे में पता करके आपके साथ विचार-विमर्श करूंगी।"
अच्युतानंद ने स्नेहा को एक नजर देखकर कहा,
"तुम्हें अब शुद्ध होने की आवश्यकता है...!"
"जो आज्ञा...!" कहकर उस शव के रक्त से रंजित स्नेहा नदी की ओर चल दी।
"परंतु उसके पहले इस शव को पुनः चिताग्नि देनी होगी। अग्निहोत्र होकर ही इसका उद्धार होगा अन्यथा यह प्रेतयोनी मे चला जाएगा।" अच्युतानंद की आवाज में एक ठंडी खामोशी थी।
"जी गुरुदेव...!" कहकर स्नेहा ने उस क्षत-विक्षत देह को अपने कंधे पर डाला और उस देह के रक्त से स्नान करती हुई उसी श्मशान की तरफ चल दी।
श्मशान में अभी भी उस चिता की अग्नि शेष थी। स्नेहा ने उस क्षत-विक्षत शव को चिता पर लिटाया और कुछ लकड़ियां रख दी। वहां से वापस जाते समय स्नेहा सर से पांव तक रक्त से नहाई हुई थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई रक्तरंजित शस्त्र स्वयं चलकर चला आ रहा हो। वो किसी के भी ह्रदय में और शरीर में डर के कारण कंपन उत्पन्न कर दे, ऐसी भयानक दिखाई दे रही थी। स्नेहा स्वयं महाकाली का अवतार लग रही थी। रक्तरंजित देह, रक्त में सने हुए बालों से टपकती रक्त की बूंदे। धरती पर पग रखने पर एक बार को तो धरती भी डोल उठती थी। उस समय स्नेहा को भी अपने शरीर का भान नहीं था।
स्नेहा ने जल्दी से जाकर नदी में स्नान किया। तब शायद स्नेहा को यह आभास हुआ, कि वह इतने समय में क्या-क्या कर चुकी थी। स्नेहा ने स्नान करने के बाद उस रात को विश्राम करने का ही निश्चय किया और सोचा, "आत्मानंद के विषय में गुरुजी से कल ही विस्तार से चर्चा करूंगी और उसका कब, क्या और कैसे संशोधन करना है? वह भी गुरुजी के साथ बैठकर कल ही निर्णय लूंगी।"
ऐसा सोच कर स्नेहा ने रात को विश्राम करने का निश्चय कर लिया।