Chapter 9
Episode 9
Chapter
रत्नमंजरी ने आगे बताना शुरू किया…
उसने कहा, "जब मेरे पति की हत्या कर दी गई। उसके बाद वह मैं अपनी सखी कला के साथ वहां से भाग निकली। क्योंकि मुझे उस समय अपनी जान की परवाह नहीं थी पर अपनी मातृभूमि की सुरक्षा की चिंता अवश्य थी। बहुत दूर जंगलों में जाकर हमें एक घर दिखाई दिया। कला ने मुझे उस घर में रुकने के लिए कहा।
"रत्ना तुम इस घर में रुको... यह घर मेरे पिताजी ने मेरे लिए बनवाया था। इस घर में एक तहखाना भी है जिसका रास्ता, यहां के मुख्य द्वार से बाएं हाथ पर एक चित्र बना है, उसे घुमाने पर खुलता है। तुम यहां सुरक्षित रहोगी और जब तक मैं वापस ना आऊं... यहां से कहीं भी मत जाना।"
मैं कला के कहे अनुसार उस तहखाने में चली गई। कला के जाने के कुछ समय बाद ही कुछ सशस्त्र सैनिक उस घर में घुस आए।
मैंने उनका सामना भी किया... पर वह लोग लगभग तीस-चालीस थे। मैंने पंद्रह-बीस सैनिकों को मारा भी पर अचानक से किसी ने पीठ पीछे से मेरे सर पर एक प्रहार किया। जिस कारण मैं एक पल के लिए कमजोर पड़ गई। जब मैंने पलट कर देखा तो कला और मेरे सास- ससुर सामने थे।
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि कला जो मेरी सबसे प्रिय सखी थी उसी ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया…??
मेरे सास-ससुर उन्होंने अरिजीत के साथ मुझे और मेरे बच्चों को मारने का षड्यंत्र कैसे रचा…???
मैं सोच ही रही थी कि मेरे ससुर ने कहा, "रत्ना... रत्ना... तुम सोच रही होंगी कि हमने माता-पिता होते हुए भी तुम्हारे पति और बच्चों के साथ तुम्हारी हत्या का षड्यंत्र कैसे रचा…? तो सुनो... अरिजीत मेरा पुत्र…!"
मेरे ससुर ने मेरी सास तरफ देखते हुए कहा, " नही...नहीं...हमारा पुत्र नहीं था। वह इस राज्य के महाराज श्री भगवंत सिंह जी का इकलौता पुत्र था। मैं तुम्हारे ससुर का छोटा भाई... जब उनकी मृत्यु हुई थी। तब मेरे पिता जीवित थे उन्होंने ही अरिजीत का राजतिलक करवा दिया था। जिस गद्दी को मुझे मिलना चाहिए था वह गद्दी मिली अरिजीत को…! इसलिए मैं अभी तक सही समय की प्रतीक्षा कर रहा था। पर अब जब वह सही समय है तो... मैंने अपने पुत्र और उस राजगद्दी के बीच के कांटे को सदा-सदा के लिए हटा दिया।
मैंने कला की तरफ देखा तो कला मुझे विस्मयकारी मुस्कान के साथ दिखाई दी। कला एक विजयी मुस्कान के साथ मुझे देख रही थी।
मैंने कला से पूछा, "इन सबके पास तो राजगद्दी का मोह था। मेरे परिवार की हत्या के पीछे... पर तुम्हारा क्या स्वार्थ था इसमें…?"
तो मेरी सास ने हंसते हुए कहा, "यही साम्राज्य की भावी महारानी है... और तुम भावी महारानी से इस प्रकार बात नहीं कर सकती।"
मैंने दुख और क्षोभ के साथ कला को देखा तो कला ने कहा, "राजकुमारी रत्नमंजरी…!!! सदैव मैं तुम्हारी दासी बन कर रही हूं। सदैव तुमसे ज्यादा योग्य होते हुए भी मुझे तुम्हारी उतरन ही मिली। अब जब मुझे अवसर मिला है... महारानी बनने का... तो मैं किसी भी मूल्य पर इस अवसर को नहीं खो सकती। और वैसे भी कुँवर अरिहंत मुझसे अत्यंत प्रेम करते हैं। अपने प्रेम और अपने स्वप्न के लिए कोई भी मूल्य चुकाना इतना बड़ा भी नहीं है। बस वह मूल्य तुम और तुम्हारा परिवार था।"
ऐसा कहकर तीनों ने मुझ पर तलवार से वार किए। अपनी प्रिय सखी के विश्वासघात ने मुझे बहुत ज्यादा तोड़कर रख दिया था। मेरी हत्या कर दी गई थी पर जब मुझ में कुछ सांसे शेष बची थी। तभी मैंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक इन लोगों से अपने परिवार की हत्या का प्रतिशोध नहीं ले लूंगी चैन से नहीं रहूंगी। उसके कुछ समय बाद तक का मुझे कोई भान नहीं है। पर जब मुझे ध्यान आया तब कला उस साम्राज्य की महारानी बन चुकी थी। मैंने उस पूरे परिवार को निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद भी मुझे शांति नहीं मिली। मैंने अपने आप को प्रभु भक्ति में समर्पित कर दिया था। क्योंकि उनकी हत्या के बाद मुझे जो दंड भगवान के न्यायालय में मिला था उसके अनुसार जब तक मैं अपने पापों का प्रायश्चित नहीं करूंगी... तब तक मेरी मुक्ति नहीं होगी। मैं वही प्रायश्चित के रूप में भगवान के भजन कीर्तन लगी थी कि यह पायल उस दुष्ट तांत्रिक आत्मानंद के पास पहुंच गई। आत्मानंद ने उस पायल से यह ज्ञात कर लिया कि मेरी आत्मा बहुत ही ज्यादा शक्तिशाली हो गई है। इस पायल के मोह के कारण वह मुझे तंत्र क्रिया से अपने वश में कर सकता है।"
इतनी देर से स्नेहा चुपचाप रत्नमंजरी की बात सुन रही थी। अब वह रत्नमंजरी से सवाल करना चाहती थी। उसने रत्नमंजरी से पूछा, "आपको अपने वश में करना चाहता है... तो क्या आपने मेरे परिवार की हत्या नहीं की…? अब यह मत बोलना कि आपने नहीं की है।"
तब रत्नमंजरी ने कहा, "यह सत्य है कि मैंने तुम्हारे परिवार की हत्या नहीं की। तुम्हारे परिवार की हत्या आत्मानंद की भेजी कृत्या ने की है। मैं उस समय जागृत नहीं थी तो मैं तुम्हारे परिवार की कोई भी सहायता नहीं कर पाई। अभी भी मैं उस तांत्रिक के पूर्ण रूप से वश में तो नहीं पर फिर भी उसके अधिकार में हूं। दो महीने बाद मेरी मृत्यु का दिन आने वाला है। उस दिन वह एक विशेष अनुष्ठान का आयोजन करने वाला है। उस दिन उस विशेष अनुष्ठान से वह मुझे और भी शक्तिशाली बनाकर अपने वश में कर लेगा। उसके बाद वह जैसा चाहेगा वैसा मैं करने के लिए विवश हो जाऊंगी। क्योंकि इस पायल की जोड़ी की दूसरी पायल उसके पास है।"
स्नेहा ने कहा, "तो तुम मुझसे क्या चाहती हो... और तुम मुझे क्यों दिख रही हो…??"
रत्नमंजरी ने कहा, "स्नेहा उस पायल की दूसरी जोड़ी की पायल तुमने पहनी है... तुम्हारा जन्म एक विशेष समय पर हुआ है। जिस कारण तुम मुझे मुक्ति दिलवाने में सहायता कर सकती हो... और तुम्हारे पास आने का सबसे बड़ा कारण तो तुम्हारे पैर में पहनी हुई यह पायल है।"
स्नेहा ने कहा, "ठीक है…! मैं आपकी सहायता करने की कोशिश करूंगी... पर उससे पहले जिसने मेरी सहायता की है... मुझे उनसे बात करके देखना होगा कि हम आपकी सहायता कर भी सकते हैं या नहीं कर सकते हैं।"
रत्नमंजरी ने हां में सर हिलाया और कहा, "अगर तुम मेरी सहायता करती हो तो मैं भी तुम्हारे परिवार की हत्या का प्रतिशोध लेने में तुम्हारी सहायता करूंगी। वैसे भी इतने दिनों से मैं तुम्हारी ही सहायता कर रही थी।"
स्नेहा ने कहा, "मुझे पागल बनाकर... सबके सामने आपने मुझे पागल तो घोषित करवा ही दिया है। इसमें का कौन सी सहायता हुई…?"
रत्नमंजरी ने कहा, "अगर मैं तुम्हें बार-बार दिखाई ना दे रही होती तो तुम्हारा परिवार उस आत्मानंद के साथ मिलकर कब का तुम्हें रास्ते से हटाने का षड्यंत्र रच चुके होते।"
स्नेहा ने कहा, "वह नहीं रच सकते थे... पूरी प्रॉपर्टी मेरे पापा की वसीयत के हिसाब से मेरे नाम पर है। जब तक प्रॉपर्टी उन्हें नहीं मिलती है... तब तक वह मुझे कुछ भी नहीं कर सकते…!"
स्नेहा के ऐसा कहते ही रत्नमंजरी ने जोर से अट्टहास करते हुए कहा, "किस प्रॉपर्टी की बात कर रही हो... वही प्रॉपर्टी जिसके कागजों पर तुम्हारे अंगूठे के निशान वह पहले ही ले चुके हैं।"
स्नेहा ने अजीब से भावों के साथ रत्नमंजरी को देखा और पूछा, "क्या मतलब है आपका?"
तब रत्नमंजरी ने कहा, "जिस दिन मैं तुम्हें पहली बार दिखाई दी थी... उससे कुछ समय पहले ही तुम्हारे चाचा ने तुम्हारे नींद में होते हुए पूरी संपत्ति के कागजों पर तुम्हारे अंगूठे के निशान ले लिए थे। और जिस दिन वकील वसीयत सुनाने आया था। उसी दिन शाम को तुम्हें नशे की दवा पिलाकर तुमसे उन कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए थे।"
स्नेहा को याद आ रहा था जब वकील अंकल चले गए थे। तब उसकी चाची दूध लेकर कमरे में आई थी। कहने लगी, "बेटा तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है आजकल। तुम गर्म दूध पियो तुम्हें अच्छा लगेगा और तुम्हें ठीक से नींद भी आएगी।"
वह दूध पीकर स्नेहा पूरी रात आराम से सोई थी। पर सुबह जब उठी थी तो उसका सर कुछ भारी भारी लग रहा था। पर स्नेहा ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उसे नॉर्मल ही लिया। अब उसे पता चल रहा था कि उस दिन उसके सर भारी होने का कारण क्या था।
अब स्नेहा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही थी। इस पर रत्नमंजरी ने कहा, "तुम चिंता मत करो वह कागज अब उन लोगों के काम के भी नहीं है। क्योंकि मैंने उन कागजों से तुम्हारे हस्ताक्षर और अंगूठे के निशान मिटा दिये है। इसीलिए तो अब यह सोच रहे हैं कि मेरे कारण तुम शीघ्र अति शीघ्र पागल घोषित हो जाओ। और पूरी संपत्ति उनके नाम हो जाए।"
स्नेहा ने कृतज्ञता से रत्नमंजरी की तरफ देखा और कहा, "मैं आपको वचन तो नहीं दे सकती परंतु मैं आपकी सहायता करने के लिए हर संभव प्रयास करूंगी। अभी मैं चलती हूं शीघ्र ही शीघ्र ही जो व्यक्ति आपसे पहले मेरी सहायता कर रहा है। उससे मिलकर आपकी सहायता के विषय में मैं बात करूंगी।"
ऐसा कहकर स्नेहा वापस अपने कमरे में आ गई और आकर रत्नमंजरी की बातों पर विचार करने लगी। उसने सोचा, "इस समय सबसे उचित यही रहेगा कि मैं आराम करूं कल मैं उस रहस्यमय आवाज वाले व्यक्ति से मिलकर रत्नमंजरी के बारे में बता दूंगी। अपने भैरवी बनके अपने परिवार की हत्या के प्रतिशोध के बारे में भी बात करूंगी।"
ऐसा सोचते-सोचते स्नेहा सो गई। सुबह स्नेहा उठी और अपने रोज के काम निपटा कर अपने पिता के ऑफिस चली गई। वहां जाकर उसे यह पता लगा कि उसके चाचा ने उसके पापा के विश्वसनीय लोगों को नौकरी से हटा दिया था। और उन लोगों को रख लिया था जो यहां रह कर विराज के लिए काम कर रहे थे। यह सब बातें भी ऑफिस पहुंचने पर रत्नमंजरी ने स्नेहा को बताई थी। यह भी बताया कि एक व्यक्ति है जो तुम्हारे पिता का सबसे ज्यादा वफादार था। उसका नाम प्रखर था।
प्रखर स्नेहा के पिता के बचपन के मित्र थे। जब स्नेहा के पिता ने यह व्यापार शुरू किया था तभी से प्रखर उनकी सहायता कर रहे थे। और स्नेहा के पिता की समय-समय पर उचित मार्गदर्शन देकर सहायता भी करते थे। प्रखर की सहायता से स्नेहा के पिता ने इस व्यापार को इस ऊंचाई तक पहुंचाया था।
स्नेहा ने प्रखर जी को ऑफिस में बुलवाया और उनसे कहा, "अंकल पापा के बाद इस पूरे बिजनेस को मैं अकेले नहीं संभाल सकती। इस बिजनेस को डूबने से बचाने में आपको मेरी हेल्प करनी होगी।"
इस पर प्रखर जी ने कहा, "स्नेहा बेटा... तुम्हारे पापा और मैं... हम दोनों ही बचपन के दोस्त थे। हर अच्छी-बुरी घड़ी में हम दोनों साथ रहे हैं। हर समय देखा है। इस समय जब तुम्हें और इस बिजनेस को मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है तब मैं इसे ऐसे नहीं छोड़ सकता।"
स्नेहा ने कहा, "अंकल सबसे पहले काम कीजिए जितने भी लोग यहां नए आए हैं या फिर पुराने हैं। आप उनमें से सबसे पहले उन लोगों का पता लगाइए जो हमारे विश्वसनीय हैं या बन सकते हैं। उसके बाद हम उन लोगों को छोड़कर बाकी सब को हटा देंगे। पहले हम इतना करते हैं... बाकी आगे प्लान क्या रहेगा उसके बारे में हम समय-समय पर बात करते रहेंगे। जब तक अंकल हम लोग, उन लोगों का पता नहीं लगा लेते जो विराज के साथ मिलकर हमें नुकसान पहुंचा रहे हैं। हमें सतर्क रहकर बिना उनकी नजर में आए यह काम करना होगा। वरना चाचा कुछ भी करके हमारे पूरे प्लान की पर पानी फेर देंगे।"
इन सब बातों के बाद प्रखर जी वापस जाने लगे तो स्नेहा ने कहा, "अंकल जी... एक मिनट... एक बात और है।"
प्रखर जी ने पूछा, "हां बेटा... कहो…!"
स्नेहा ने कहा, "अंकल हमें एक कंप्यूटर एक्सपर्ट भी चाहिए जो हैकर हो... क्योंकि अगर विराज के आदमी हमारी कंपनी में है... तो उन्होंने हमारे सारे सिक्योरिटी सिस्टम को हैक कर लिया होगा। हमारी कॉन्फिडेंशियल बातें भी उनके पास होंगी। प्लीज आप जितना जल्दी हो सके यह सब कुछ अरेंज करें।"
प्रखर ने "हां" कहा और वह वापस चले गए।
प्रखर के जाने के बाद स्नेहा ने सबको ऐसे दिखाया कि उसकी और प्रखर की जोरदार लड़ाई हुई थी। स्नेहा सब कुछ अब खुद से देखेगी।
जल्दी स्नेहा वापस घर पहुंची... घर पहुंचते ही पीहू उसके सामने आ गई और स्नेहा को लाड करने लगी। स्नेहा भी पीहू को लाड कर रही थी कि स्नेहा दोबारा से चीख उठी…!
पहले की ही तरह सामान इधर-उधर उठाकर फेंकने लगी। आवाज सुनकर प्रीति और पूरा परिवार वहां दौड़कर पहुंच गए। प्रीति ने पीहू को गोद में उठाकर अपने गले से लगा लिया। पीहू रोने लगी थी और सारा परिवार मन ही मन खुश होकर स्नेहा को देख रहा था।
थोड़ी देर बाद स्नेहा नॉर्मल हुई और अपने कमरे में चली गई। वहां जाकर स्नेहा ने चैन की सांस ली और सोचा, "चलो अच्छा हुआ उन्हें शक नहीं हुआ।"
स्नेहा सुबह से बहुत थक गई थी और थोड़ा आराम करना चाहती थी। स्नेहा ने थोड़ी देर आराम करने का सोचा और सो गई। स्नेहा जब सो रही थी तब रत्नमंजरी ने आकर उसे जगाया और कहा, "उठो स्नेहा... उठो... यह समय सोने का नहीं है। आत्मानंद को पता चल गया है कि तुम वापस आ गई हो और इस व्यापार को संभालने की स्थिति में भी हो। आज वह एक अनुष्ठान करने वाला है ताकि तुम्हें नुकसान पहुंचा सके। मुझे जैसे ही पता चला मैं तुम्हें बताने के लिए आ गई हूं। मैं इस समय तुम्हारी कोई भी सहायता करने में असमर्थ हूं। अब केवल तुम्हारा वह शुभचिंतक... वही तुम्हारी सहायता कर सकता है।"
स्नेहा बहुत ही ज्यादा परेशान हो गई थी उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों उसकी मुसीबतें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। वह चाहती थी कि जल्दी से सब कुछ खत्म हो जाए पर यहां तो रोज नई मुसीबत आकर सामने खड़ी हो जाती थी।
कुछ देर सोचने के बाद स्नेहा ने वह काला कपड़ा निकाला और उसका एक टुकड़ा जलाया। थोड़ी देर तक कोई आवाज नहीं आई तकरीबन 15 मिनट इंतजार करने के बाद स्नेहा ने उस काले कपड़े का एक और टुकड़ा जलाया। पर फिर आधा घंटा बीत गया और कोई भी आवाज नहीं आई। अब स्नेहा थोड़ा-थोड़ा थोड़ा टेंशन में आने लगी थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि स्नेहा ने उस कपड़े को जलाया हो और कोई भी प्रत्युत्तर ना मिला हो।