Chapter 5

Chapter 5

Episode 5

Chapter


ऐसा कह कर तांत्रिक ने कुछ मंत्र फुसफुसाए और दीवार की तरफ इशारा कर दिया। जल्दी ही वहां पर एक दृश्य चलने लगा।

एक आलीशान कमरा, महंगा फर्नीचर, दिन के उजाले में एक-एक चीज ऐसे चमक रही थी जैसे हीरा चमकता है रोशनी पड़ने पर। एक बहुत ही बड़ी और महंगी दिखने वाली कुर्सी पर एक आदमी बैठा कुछ काम कर रहा था। जिसमें उसके चाचा, चाची और बुआ मिलने गए। उन लोगों के बीच कुछ बातें हुई और उसकी बुआ ने एक पोटली निकाल कर दी। उस पोटली में घर के सभी सदस्यों की एक एक वस्तु थी। जिसमें उसके पापा का पैन, मां की पायल, भाई की कफ-लिंक्स, भाभी की अंगूठी और छोटी राधु की एक गुड़िया थी। 

उस पोटली को देने के बाद चाचा ने कहा, "हमने उस परिवार पर तंत्र करने के लिए उनकी प्रिय वस्तु आपको दे दी है। आपको उनके व्यापार से मतलब है और हमें उनकी संपत्ति से। पूरा व्यापार हम आपको सौंप देंगे और जो भी उसकी कीमत होगी वह आप हमें दे देना।" 

 दृश्य वहीं समाप्त हो गया स्नेहा अनिश्चितता के भावों के साथ उस तांत्रिक को देख रही थी। फिर तांत्रिक ने दूसरा दृश्य देखने के लिए स्नेहा को इशारा किया।  स्नेहा फिर से  दीवार की तरफ देखने लगी।

 दूसरा दृश्य शुरू हो गया।

 वह व्यक्ति जो स्नेहा के चाचा, बुआ से मिला था।  एक अजीब से स्थान पर गया। जहां धुंआ ही धुंआ था।  चारों तरफ मानव कंकाल पड़े थे, कुछ विचित्र सी आकृतियां जमीन पर बनी हुई थी। एक यज्ञ वेदी थी, जिसमें से कुछ विचित्र धूँआ दिखाई दे रहा था।  एक  विचित्र सा व्यक्ति जिसकी लंबी-लंबी जटाऐं, मटमैला शरीर, मृगछाल पहने, आंखें बंद किये उस हवन कुण्ड के सामने बैठा था।

 वह व्यक्ति उस तांत्रिक के पास गया तो तांत्रिक ने आंखें बंद करे हुए ही कहा, "आओ पुत्र…! विराज क्या तुम उस परिवार  के सभी सदस्यों की एक एक वस्तु ले आए हो?"

 विराज ने हाथ जोड़कर कहा, "जी प्रभु... मैं सब कुछ ले आया हूं। जैसा आपने बताया था ठीक वैसा ही किया है। पर गुरुदेव उस परिवार की एक बेटी है जो काफी समय से परिवार से अलग रहती है। उसका कारण तो नहीं पता पर उस लड़की की कोई भी वस्तु नहीं मिली है।"

तब उस तांत्रिक गुरुदेव ने कहा, "कोई बात नहीं बेटा...!! तेरा काम इन्हीं वस्तुओं से हो जाएगा।  मैं प्रयास करूंगा कि वो लड़की वापस कभी ना लौटे।"

 इतना कहकर विराज उस सामान की पोटली को वही रख कर वापस लौट गया। उस तांत्रिक ने उस  सभी सामान से तंत्र क्रिया कर उससे एक भयंकर मारक तंत्र का निर्माण किया। 

  दृश्य खत्म हो गया और दीवार फिर से दीवार की तरह दिखने लगी। 

तब तांत्रिक ने कहा, "अब तुम्हारा क्या कहना है। अब तुम मेरी भैरवी बनना चाहती हो।  या फिर अपने परिवार के हत्यारों को यूं ही खुला छोड़ कर अपनी भी मृत्यु को आमंत्रित करना चाहती हो…! निर्णय तुम्हारा होगा।"

स्नेहा ने कहा, " मुझे यह सब देख कर बहुत ही ज्यादा गुस्सा आ रहा है।"

  फिर एक गहरी सांस लेकर कहा, "मैं आपकी भैरवी बनने के लिए तैयार हूं। मुझे किसी भी कीमत पर अपने परिवार की इतनी भयानक मौत का बदला चाहिए। इन लोगों की भी इतनी ही या इससे भी ज्यादा भयानक मौत होनी चाहिए। वह मौत मैं खुद उन्हें अपने हाथों से देना चाहती हूं।"

 तब उस तांत्रिक ने कहा, "तुम अभी क्रोध में हो। तुम घर जाओ..  आराम करो। शीघ्र ही तुम्हें उनकी आगे की योजना का पता चलेगा। जब तक तुम्हारे परिवार के सदस्यों का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक पूरा नहीं होता तब तक तुम्हें उन पर नजर रखनी होगी। क्योंकि अगर उनके श्राद्ध और तर्पण विधि पूर्वक नहीं हुए तो वह उसी तंत्र में कैद होकर रह जाएंगे। तुम अच्छी तरह से कल तक विचार कर लो और यह भी अच्छे से सोच लो कि तुम्हें आगे करना क्या है। क्योंकि तुम्हारा निर्णय तुम्हारे आने वाले जीवन का की दिशा निर्धारित करेगा। 

ऐसा बताकर तांत्रिक ने कहा, "स्नेहा रात काफी हो गई है।  मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देता हूं। जब भी तुम्हें मेरी सहायता की आवश्यकता होगी तुम्हें उचित समय पर निर्देश मिलते रहेंगे। कोई भी कार्य गुस्से में आकर मत करना।  उन्हें भी ये बिल्कुल भी शक मत होने देना कि तुम्हें उनके बारे में सब कुछ पता है।  क्योंकि वह तांत्रिक बहुत ही ज्यादा शक्तिशाली है। मैं उसका सामना तो कर सकता हूं पर पक्का नहीं के उससे जीत ही जाऊँ। अगर तुम्हारी कोई वस्तु उनके पास पहुंच गई तो फिर मैं भी तुम्हारी कुछ सहायता नहीं कर पाऊंगा।" 

 "तुम्हारे साथ साथ मेरा भी कार्य अपूर्ण रह जाएगा  अब आगे क्या करना है वह ध्यान से सुनो…"  तांत्रिक ने स्नेहा को कुछ गुप्त बातें बताई। जिनसे जब तक स्नेहा शांत मन से किसी निर्णय पर नहीं पहुंचती है तब तक स्नेहा का बचाव हो सके। 

 तांत्रिक ने स्नेहा को आंखें बंद करने के लिए आदेश दिया। स्नेहा ने आंखें बंद की अचानक से ही तेज हवा अपने शरीर पर महसूस हुई। एक पल बाद जैसे ही  स्नेहा ने आंखें खोली वह अपने कमरे में थी। 

जब स्नेहा ने आंखें खोली वह अपने कमरे में थी।  तब उसे आवाज आई, "तुम्हें जब भी मुझसे मिलना हो तब  इस काले कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा काटकर जला देना। मुझ तक संदेश पहुंच जाएगा।"

 "मेरी वाणी तुम्हें आगे के निर्देश देगी जिससे हमारी भेंट पुनः हो सके। अब इस कपड़े और आसन को छुपा कर रख दो क्योंकि अगर किसी के हाथ लगा तो तुम्हारे प्राणों पर संकट बढ़ जाएगा।" इतना बोलते ही वह आवाज शांत हो गई।

 स्नेहा अपने कमरे में आराम करने लगी लेटे लेटे वह यही सोच रही थी कि क्या... उस तांत्रिक की बात मानना ठीक होगा?  

सोचते सोचते स्नेहा की आंख लग गई। 

जब स्नेहा सो रही थी।  तब उस कमरे में वही भयानक औरत जिसने स्नेहा के पूरे परिवार की निर्मम हत्या की थी वह स्नेहा की तरफ धीरे धीरे बढ़ रही थी।  पास आकर स्नेहा के सिरहाने के पास बैठ गई। उसके तेज नाखूनों वाली उंगलियां स्नेहा के चेहरे पर चल रही थी। स्नेहा को  उन नाखूनों की चुभन अनुभव हुई। स्नेहा ने आंखें खोल कर देखा तो वही डरावनी औरत स्नेहा के सिरहाने बैठी थी।  अपनी लाल आंखों से स्नेहा को देख कर ऐसे मुस्कुराई जैसे कोई  बाघ अपने पंजे में दबे मृग को देख कर  प्रसन्न होता है।

स्नेहा उसे देख कर बहुत ज्यादा डर गई। एयर कंडीशनर की ठंडक में भी पसीने से भीग गई थी। घबराहट से उसका गला सूख रहा था। शरीर में हिलने की ताकत तक नहीं लग रही थी। मुँह से आवाज बाहर नहीं निकल रही थी। चाह कर भी चिल्ला नहीं पा रही थी। इसी कारण आँखों से बेबसी के आंसू बह रहे थे और अपने जीवन का अंत भी महसूस कर रही थी।  स्नेहा को उस  तांत्रिक की याद आई जिसने उसकी सहायता का आश्वासन दिया था पर अभी तो वो भी कुछ नहीं कर रहा था। ये सोचकर और भी दुखी हो रही थी। स्नेहा ने फिर एक बार मरने से पहले सहायता के लिए उसे पुकारने की सोची। इस बार उसकी जोरदार चीख निकल गई।

"बऽऽऽऽऽऽचाऽऽऽऽऽऽऽऽओऽऽऽऽऽऽऽऽ…!!"

चीखते ही उसकी आंख खुल गई।

"हाश…!! सपना था…!" स्नेहा ने मन ही मन अपने आपको समझाते हुए कहा। 

 घर के बाकी सभी लोग भागते हुए स्नेहा के कमरे में पंहुचे।  सबने स्नेहा को सही-सलामत देखा तो उससे सवाल करने लगे।

"क्या हुआ… स्नेहा तुम चीखी क्यूँ???" अखिलेश जी ने पूछा।

 "क्या बात हैं स्नेहा बेटा…? इतनी डरी हुई क्यूँ हो?" गीता जी ने झूठी सहानुभूति दिखाते हुए पूछा।

"सब ठीक तो है बेटा…? कुछ हुआ हो तो हमें बता सकती हो।" अरुणा जी ने स्नेहा के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।

फिर अरुणा जी और गीता जी स्नेहा के बेड पर बैठकर स्नेहा के पैर पर हाथ रखकर सांत्वना देने लगी। राहुल और अनुज दोनों गुस्से और खीज के साथ स्नेहा को देख रहे थे।

स्नेहा ने कहा, "मैं ठीक हुँ…!! आप परेशान ना हों कुछ बुरा सपना देख कर थोड़ा घबरा गई थी। अब सब ठीक है आप सब भी आराम कीजिए।"

"कोई बात नहीं बेटा… हम यही है। तुम चिंता मत करो। कोई भी जरूरत हो तो आवाज लगा देना।" अखिलेश जी ने कहा।

"हुह… मेरे ही घर में रहकर मुझे ही मेहमान बना रहे हैं।" स्नेहा ने मन ही मन सोचा और सबसे कहा, "आप सब चिंता ना करें… मैं ठीक हुँ अब। आप सब भी आराम कर लीजिए।"

सभी एक-एक कर के अपने कमरों में चले गए। जल्दी ही स्नेहा भी सो गई।

सुबह जब स्नेहा उठी तो उसे पता चला। उसके पापा की वसीयत पढ़ी जाने वाली है आज। 

स्नेहा थोड़ा दुखी हो गई थी पर जल्दी ही उसने अपने आपको सम्भाल लिया। 

शाम को  वकील साहब घर आए। सभी हॉल में ही उनका इंतजार कर रहे थे।

"आइए... बैठिए… वकील साहब!" अखिलेश जी ने उठकर वकील साहब का स्वागत करते हुए कहा। और किसी को चाय-नाश्ता लाने के लिए कहा।

वकील साहब ने कहा,  "नहीं... नहीं... रहने दीजिए! चाय नाश्ते की कोई जरूरत नहीं है।  बस आप स्नेहा बिटिया को जल्दी बुला दीजिए ताकि  वसीयत पढ़ी जा सके।"

 थोड़ी देर में स्नेहा भी बाकी लोगों के साथ वसीयत सुनने के लिए हॉल में आकर बैठ गई। वकील साहब ने वसीयत पढ़ना शुरू किया।

"मैं अनुराग पुत्र श्री गोविंद प्रसाद... अपने पूरे होशो हवास में अपनी सभी पूरी चल अचल संपत्ति 2 बराबर हिस्सों में अपने दोनों बच्चों में बांटता हूं। जिसमें घर दोनों ही बच्चों का होगा। व्यापार मेरा बेटा आशुतोष संभालेगा। स्नेहा उसमें चाहे तो आशुतोष की मदद कर सकती है और अगर अपना अलग व्यापार करना चाहे तो आशुतोष से मदद ले सकती है।"

 इस तरह कुछ जरूरी बातें बता कर वकील साहब ने वसीयत बंद कर दी। सभी के चेहरे उतर गए थे। सब सोच रहे थे कि वसीयत में उन्हें भी कुछ मिलेगा।

  वकील साहब ने कहना शुरू किया, "अब आशुतोष और उसका परिवार भी इस दुनिया में नहीं है। तो आशुतोष के हिस्से की भी पूरी संपत्ति स्नेहा के नाम अपने आप हो जाती है। पूरी बात यह है कि अनुराग जी की पूरी चल अचल संपत्ति बैंक बैलेंस और गहने सभी स्नेहा को दिए जाते हैं।" 

 वकील साहब वसीयत पढ़कर चले गए स्नेहा भी उठकर अपने कमरे में चली गई। बाकी परिवारजन वही हाॅल में बैठकर संपत्ति हाथ से जाने का शोक मना रहे थे।

 गीता जी ने कहा, "यह तो सब कुछ स्नेहा के नाम चला गया।  अब हम क्या करेंगे…?"

 इस पर अरुणा जी बोली,  "जीजी यह तो गलत बात है। इस पूरे संपत्ति में से हमें तो कुछ तो मिलना चाहिए था।"

 अखिलेश ने कहा, "अभी शांत रहो... जल्दी किसी दूसरे वकील से मिलकर इस प्रॉपर्टी के बारे में बात करते हैं और यह कोशिश करते हैं की पूरी प्रॉपर्टी हमें ही मिले। बस स्नेहा का कुछ परमानेंट इलाज  ढूंढना होगा।"

 सब बातें ही कर रहे थे कि स्नेहा के कमरे से बहुत तेज से तोड़फोड़ और सामान इधर-उधर गिरने की आवाजें आ रही थी।  सभी दौड़कर स्नेहा के कमरे की तरफ गए।


कमरे में स्नेहा अपना सारा सामान एक-एक करके उठाकर फेंक रही थी।  जैसे उसे कोई नुकसान पहुंचाना चाहता हो और वह उस पर उस सामान से हमला कर रही थी। पूरा कमरा अस्त-व्यस्त दिख रहा था। ड्रेसिंग टेबल पर रखा सारा सामान पूरे कमरे में बिखरा पड़ा था। कहीं तकिए, कहीं चादर और कहीं टेबल लैंप पड़ा था।  स्नेहा किसी पर चिल्ला-चिल्ला कर जो सामान हाथ में आ रहा था, उसे फेंक रही थी।

 सब उसके फेंके जाने वाले सामान से बचते हुए वहां खड़े थे। 

अखिलेश जी स्नेहा के पास जा  उसके कंधे पर हाथ रख कर बोले, "स्नेहा बेटा यह क्या कर रही हो…? यह सारा सामान इधर उधर क्यों फेंक रही हो…???"

 स्नेहा ने कहा, "चाचा जी…! आप देखो…!!! सामने वह औरत खड़ी है ना...। मुझ पर हमला करना चाह रही है। मैं बस उसे रोकने के लिए यह सब फेंक रही हूं। आप देखिए ना वह यहीं आ रही है…! आपको...आपको उसकी आवाज नहीं सुनाई दे रही... इतना चिल्ला रही है।"