Chapter 3

Chapter 3

Episode 3

Chapter

घर से निकलते ही बाहर एक ऑटो स्नेहा का इंतज़ार कर रहा था।

ऑटो चालक ने कहा,  "आप स्नेहा हो ना! बाबा ने आपको लाने के लिए बोला है। जल्दी बैठ जाओ...आप पहले ही देर से आई हो।"

स्नेहा जल्दी ही उस ऑटो में बैठ गई। ऑटो  जल्दी ही हवा से बातें करने लगा।  बीच-बीच में ड्राइवर बाबा की तारीफों के पुल बांधे जा रहा था जिससे स्नेहा को खीज हो रही थी। 

"शांत हो जाओ… और बंद करो तुम्हारा बाबा पुराण। दिमाग की वैसे ही बैंड बजी पड़ी है। तुम्हारा बाबा पुराण खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।" स्नेहा ने खीज कर डांटने हुए कहा।

ड्राइवर एकदम चुप हो गया और ऑटो चलाने पर ध्यान लगा लिया। थोड़ी देर बाद स्नेहा ने पूछा, "सुनो…! कितनी दूर और जाना हैं?"

इसपर ड्राइवर फिर से चहक कर बोला, "मैडम जी, बस थोड़ी देर में पहुंच ही गए समझो। श्मशान तो बस कहने के लिए ही है। बाकी बाबा के ठाठ तो रजवाड़ों के जैसे है। पता है कितने बड़े बड़े लोग हाथ बांधकर खड़े रहते हैं। आप बहुत खास होगी मैडम जी जो बाबा ने खुद आपको लेने मुझे भेजा है।"

स्नेहा ने फिर से घूर कर देखा।  ड्राइवर ने स्नेहा को घूरते देख चुप रहना ही ठीक समझा। स्नेहा का स्वभाव ऐसा नहीं था। बहुत ही सुलझी हुई और समझदार थी पर परिवार की मौत और उस रहस्यमय आवाज ने इस समय उसे अंदर तक से हिलाकर रख दिया था। इस सबके कारण क्रोध उसके ऊपर हावी हो रहा था।

अंधेरे में ऑटो कहां जा रहा था कुछ पता ही नहीं चल रहा था। जल्दी ही ऑटो रुक गया और ड्राइवर ने कहा, "मैडम इससे आगे आपको पैदल ही जाना होगा। ऑटो नहीं जा पाएगा।"

स्नेहा ने ऑटो वाले को पैसे दिए और खुद बाबा तक  पहुंचने का रास्ता ढूंढने लगी।

तब फिर वही रहस्यमय आवाज़ आई, "सीधे चलते जाओ… जहां भी मुड़ना होगा मैं तुम्हें बता दूंगा।"

स्नेहा सीधे चलती जा रही थी। घना जंगल जैसा प्रतीत हो रहा था। घने पेड़ देखने पर ऐसा लगता था जैसे साक्षात दैत्य सामने खड़े हो। बड़े बड़े दैत्य जो अपने हाथों को फैलाए हुए आक्रमण को तैयार। हर पग पर चर्ररर…चर्ररर… की आवाज सुनाई दे रही थी। साथ में कभी-कभी झींगुर और छिपकलियों की आवाज भी माहौल को डरावना बना रही थी। 

"ये कैसी जगह है? डर से ज्यादा तो टेंशन हो रही हैं कहीं से कोई खतरनाक जानवर आकर सामने ही ना खड़ा हो जाए। बस अब आवाज के स्थान पर जल्दी पहुंच जाऊँ।" स्नेहा ने मन में सोचा।

"बाएं मुड़ जाओ… उसके सौ कदम बाद दाएं मुड़ना। फिर कुछ दूरी पर एक बड़ा सा बरगद है। वहां पर एक आसन रखा होगा और एक काला कपड़ा भी। आगे के निर्देश वही पर मिलेंगे। समय कम है शीघ्रता करो।" आवाज ने आदेश दिया।

स्नेहा ने अपनी गति को थोड़ा और तेज कर दिया। उसे भी अपने प्रश्नों के उत्तर पाने की जल्दी थी। जल्दी से स्नेहा पेड़ के पास पहुंच गई और आसन और कपड़े को उठा लिया। उठा कर सोच ही रही थी कि आवाज फिर से गूंजी, "आसन बिछा कर पालथी मारकर बैठ जाओ। कपड़ा आँखों पर बांध लो और जब तक बोला ना जाए खोलना नहीं है।"

स्नेहा आवाज के निर्देशों का पालन करती जा रही थी और मन में सोच रही थी, "इतना भी क्या सस्पेंस बनाना… मैं कौन सा किसी को उसके अड्डे के बारे में कुछ बता दूंगी? 

स्नेहा ने आवाज के कहे अनुसार आसन पर बैठकर आँखों पर पट्टी बाँध ली। और आगे के निर्देशों का इंतजार करने लगी।

थोड़ी देर बाद आवाज फिर से गूंजी, "अब तुम आंखें खोल सकती हो लेकिन…! एक बात पूछनी थी तुमसे।"

स्नेहा तो पट्टी खोलने का ही इंतजार कर रही थी कि आवाज सुनकर कुछ असमंजस में पड़ गई। 

"कौन सी बात…? कहना क्या चाहते हो?" स्नेहा ने पूछा।

"तुमने मेरे बारे में सोचा तो होगा ही जैसे  कौन हूँ…? कैसा दिखता हूँ? कौन सी जगह रहता हूँ?" आवाज ने मजाकिया स्वर में पूछा।

"हूह… पूछ तो ऐसे रहा हैं जैसे मेरे बोलने पर  युवराज पद्मनाभ बन जाएगा और यह जगह सिटी पैलेस।" स्नेहा मन में बडबडाइ।

"जैसा तुम्हें अच्छा लगे…!!!" आवाज ने कहा। फिर चुटकी बजाई और स्नेहा को आंखें खोलने का निर्देश दिया।

"अब तुम आंखें खोल सकती हो…!"

आवाज सुनकर स्नेहा ने अपनी आंखों से पट्टी हटा दी। एक मिनट के लिए तो स्नेहा को कुछ दिखाई नहीं दिया पर जैसे ही उसकी आंखें नॉर्मल हुई आसपास देख कर आश्चर्य से चौड़ी हो गई।

 वो  सच में सिटी पैलेस ही था। सिटी पैलेस जयपुर में स्थित राजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना है। राजाओं की पुरानी निवास स्थली जो पुराने शहर के बीचों बीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों से अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं। जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कला दीर्घा भी हैं जिसमें लघु चित्रों, कालीनों, राजसी साजो सामान के साथ-साथ अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत  की दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का भी उत्कृष्ट संग्रह है। जो कि सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी।

 वह सिटी पैलेस का ही एक कमरा था वह, सर्वतो भद्रा!!

सर्वतो भद्रा एक अद्वितीय वास्तुशिल्प की विशेषता है। असामान्य नाम भवन के रूप को संदर्भित करता है।  सर्वतो भद्रा एक मंजिला, चौकोर, खुला हॉल है, जिसके चारों कोनों में, संलग्न कमरे हैं। सर्वतो भद्र का एक प्रयोग दीवान-ए-ख़ास, या हॉल ऑफ़ प्राइवेट ऑडियंस के रूप में किया जाता था, जिसका अर्थ था कि शासक का एक अधिक निजी, अंतरंग स्थान। 'जीवित विरासत' कहना ज्यादा ठीक होगा इसे। सार्वजनिक क्षेत्रों और निजी निवास के बीच अपने स्थान के कारण, यह पारंपरिक रूप से जयपुर के महाराजाओं के राज्याभिषेक अनुष्ठान जैसे महत्वपूर्ण निजी कार्यों के लिए उपयोग किया जाता रहा है।

मैं खड़ी आंखे फाड़ कर पागलों की तरह सब कुछ देख रही थी। विश्वास नहीं हो रहा था कि सत्य है या छलावा। 

"क्या देख रही हो, यहीं तो मुझसे मिलना चाहती थी ना।" आवाज ने कहा।

स्नेहा ने झटके से मुड़ कर देखा तो सामने एक 22-25 साल का लड़का खड़ा था। गोरा रंग, चमकदार भूरी आंखे सम्मोहित कर देने वाली थी, कद करीबन छह फुट दो इंच होगा, कसरत करके बनाया हुआ शरीर और उसपर घुंघराले बाल। व्हाइट हंटर शर्ट के साथ ब्राउन ब्रीचेज्। वो किसी भी लड़की को आकर्षित करने में समर्थ लग रहा था।  एक पल को तो स्नेहा भी मोहित हो गई थी। 

"यही रूप तो देखना चाहती थी ना…!" उस लड़के ने स्नेहा के आगे चुटकी बजाते हुए उसका ध्यान तोड़ते हुए कहा। 

स्नेहा उस लड़के के ऐसा करते ही सकपका गई। वो बिल्कुल भूल ही गई थी कि उससे मिलने आई ही क्यूँ थी। 

"अब मजाक छोडकर असल मुद्दे पर आते हैं। मुझे तुम पर आसक्ति हो गई है। तुम्हारा जन्म जिस समय में हुआ है तंत्र शास्त्र के अनुसार तुम एक महान भैरवी बनने के गुण है। तुम्हारे परिवार को भी तंत्र के द्वारा ही मारा गया है। यदि तुमने उनका विधि विधान से तर्पण और बाकी संस्कार नहीं किए तो वो लोग भी उसी तंत्र का एक अंग बन जाएंगे।" उस लड़के ने कहा।

"क्या बकवास कर रहे हों ऐसा कैसे होता है…? सब मनगढ़ंत बात है।" स्नेहा ने कहा।

"तंत्र में कुछ भी मनगढ़ंत नहीं होता लड़की। कल तुमसे मैंने बात की वो भी तंत्र का ही एक भाग था।  जो अभी तुम देख रही हो उसे तंत्र की भाषा में इंद्रजाल कहते है। मुझे तंत्र साधना के लिए एक शक्तिशाली भैरवी की आवश्यकता है और तुम्हें अपने परिवार की हत्या का प्रतिशोध चाहिए।  'एक हाथ दे एक हाथ' ले वाला ही नियम चलेगा यहां तो।" उस लड़के ने बोलना खत्म करते हुए एक प्रश्न स्नेहा की तरफ उछाल दिया।

स्नेहा असमंजस में इधर-उधर देख रही थी। आँखों की पुतलियाँ भी तेजी से घूमकर उसकी व्याकुलता को दिखा रही थी।

"चलो तुम्हारा निर्णय लेना और सरल बना देते हैं।" कहते हुए उस लड़के ने दीवार की तरफ हाथ करके कुछ मंत्र बुदबुदाये।

दीवार पर कुछ धुंधली आकृतियां दिखाई देने लगी थी। धीरे-धीरे आकृतियाँ स्पष्ट हो रही थी और स्नेहा की आंखें बड़ी।

स्नेहा के घर का दृश्य दीवार पर चल रहा था। सभी घरवाले बहुत खुश दिखाई दे रहे थे।  स्नेहा के पापा आज बहुत ज्यादा खुश थे। उन्होंने सभी नौकरों को आज विशेष उपहार दे कर  छुट्टी दी थी। स्नेहा की माँ रसोई में मिठाइयां बना रही थी और राधु तो पूरे घर में नाचती घूम रही थी। पापा घर की सजावट में लगे थे। माँ ने जल्दी ही मिठाइयां बना कर पूजा घर में आरती की थाल तैयार कर रही थी। जल्दी ही पापा की सजावट पूरी हो गई थी और वो बार बार माँ को जल्दी करने के लिए बोल रहे थे।

"यार… तुम औरतें ना बहुत देर लगाती हो। वो लोग आते ही होंगे और अभी तुम्हारा काम ही खत्म नहीं हुआ। ऐसे कैसे चलेगा।" स्नेहा के पापा ने बड़बड़ाते हुए उसकी माँ से कहा।

"हाँ क्यूँ नहीं मेरे तो दस बीस हाथ है ना। सबको आज ही छुट्टी देनी थी। आपने स्नेहा को बताया।" स्नेहा की माँ भी बडबडाई।

"हाँ कॉल किया था उठाया नहीं उसने। अरे... रे... राधु बेटा आप कहाँ जा रहे हो।" राधु को गोद में लेते हुए स्नेहा के पापा ने कहा।

इतने में बाहर गाड़ी रुकने की आवाज़ आई तो स्नेहा के पापा बाहर की तरफ राधु को गोद में लिए हुए ही दौड़े। गाड़ी से स्नेहा के भाई भाभी उतरे। दोनों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। 

"अरे कहाँ हो… आ गए आपके लाडले…! जल्दी आओ भाई।" स्नेहा के पापा अधीर होकर चिल्ला उठे।

स्नेहा की माँ जल्दी से आरती की थाल लेकर बाहर आई और अपने बेटे बहु को दरवाजे पर ही रोक दिया, "आरती से पहले अंदर नहीं आने दूंगी।" कहते हुए आरती उतारकर दोनों को अंदर ले आई और सोफ़े पर बैठा दिया।

"हिलना मत यहां से मैं अभी आई।" कहकर जल्दी से रसोई की तरफ चली गई। 

स्नेहा के भाई भाभी दोनों सोफ़े पर बैठकर मुस्करा रहे थे और राधु वहीं धमा-चौकड़ी मचा रही थी। पापा भी पास ही खड़े प्यार से उन्हें ही निहार रहे थे। 

"नजर मत लगाना मेरे बच्चों को।" स्नेहा की माँ ने वापस आते हुए कहा और बच्चों की नजर उतारने लगी।

"हां... तुम्हारे बच्चे मेरे तो दुश्मन है। मेरी तो नजर लगेगी ही।" स्नेहा के पापा ने कहा। 

 स्नेहा की भाभी ने कहा, "मां आप बैठो और आराम करो। कितनी भाग दौड़ लगा रखी है आपने।"

स्नेहा का भाई बोला, "सुनो... सुनो... सुनो…! आज एक नहीं चार-चार खुशखबरीयां है। पहली राधु का छोटा बहन या भाई आने वाला है। यह तो आपको पता ही है। दूसरी खुशखबरी यह है की हमारी कंपनी को साल की बेस्ट कंपनी और पापा को बेस्ट बिजनेसमैन ऑफ द ईयर का अवार्ड मिलने वाला है। तीसरी शाम तक या फिर सुबह स्नेहा घर वापस आ रही है। और चौथी और आखिरी खुशखबरी यह है कि स्नेहा के लिए एक रिश्ता आया है। हम सब उन्हें बहुत अच्छे से जानते भी हैं। मैंने कल उन्हें डिनर के लिए इनवाइट भी कर लिया है। हम सब लड़के से और उसके परिवार से मिल भी लेंगे और स्नेहा को भी मिला देंगे। अगर सब कुछ ठीक रहा तो जल्दी स्नेहा की शादी कर देंगे। है ना सब कुछ कितना अच्छा... सब कुछ कितना अच्छा जा रहा है ना…!  है ना मां…!!!"

सभी खुशी खुशी बातें कर रहे थे। हंसी मजाक चल रही थी। तभी स्नेहा की भाभी ने कहा, "मां हम खाना लगा देते हैं।" और रसोई की तरफ चल दी।

अचानक स्नेहा की भाभी कुछ पूछने के लिए बाहर आई तो जोर से उसकी चीख निकल गई।   चीखने की आवाज सुनते ही सभी उसी तरफ देखने लगे जिस तरह तरफ स्नेहा की भाभी देख रही थी। उस तरफ देखते ही सबकी सभी की आंखें डर के कारण बड़ी हो गई थी। 

दरवाजे पर कोई परछाई जैसी खड़ी थी।